अनसुनी चीख
जननी का दर्जा दिया मुझे फिर बहन बना पुचकारा।
बेटी बन विदा किया मुझे पत्नी पर तनमन वारा॥
जाने क्यूँ समय पलट गया क्यूँ दृष्टि बदल गई नर की।
मुझको ही अपमानित करके अपनी ही समझ मलिन कर दी॥
मुझको ही अपमानित करके अपनी ही समझ मलिन कर दी॥
आँचल के अन्दर कौन छुपा है निर्जीव मशीन जब बोली।
सबके मुख पर छा गई गर्मी सबकी हालत पतली हो ली॥
भिन्न-भिन्न औजारों से काटा, कुचला और रौंदा गया।
खिलने से पहले ही कली को तिल-तिल करके कौंदा गया॥
खिलने से पहले ही कली को तिल-तिल करके कौंदा गया॥
अनदेखे हाथों ने बरबस मांगी जीवन की भीख कभी।
बंद होंठों से निकली थी अनसुनी अन्दर की चीख कभी॥
दया न आई दानव को क्षत-विक्षत करके फ़ेंक दिया।
जीवन को जीवन से पहले धरती माँ के अधीन किया॥
जीवन को जीवन से पहले धरती माँ के अधीन किया॥
बहन-बेटी के रिश्ते को बनने से पहले ही तोड़ दिया।
अजन्मी बेबस अबला को प्रभु के घर में ही छोड़ दिया॥
- Written by: Dr. Nirmal Prakash 'निर्मल'
(Also published in leading newspapers)
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